कहा जाता है कि पहले वर्ण व्यवस्था मनुष्य के कर्म के आधार पर निर्धारित होती थी। यदि व्यक्ति उच्च समझे जाने वाले कार्य करता था तो उसे उच्च वर्ण का माना जाता था और यदि वह छोटे कार्य करने लग गया तो उसे छोटे वर्ण में गिना जाता था अर्थात कर्म की प्रधानता के आधार पर उसका वर्ण निर्धारित होता था। परंतु समय के साथ एवमं माँ-बाप की लालच से यह व्यवस्था बिगड़ गई और वर्ण जाति के रूप में परिवर्तित हो गए। ऐसा होने के पश्चात व्यक्ति का वर्ण उसके मां-बाप की पोजीशन से निर्धारित होने लग गये । यदि उच्च वर्ण के माँ-बाप की संतान उच्च समझे जाने वाले कार्य करने में अक्षम थी तो भी उसे माँ-बाप की स्थिति के आधार पर उच्च वर्ण का ही माने जाने लगा। इसी प्रकार निम्न वर्ग में आने वाले तबके के बच्चे चाहे कितने भी प्रखंड विद्वान हो उन्हें नीचा ही समझे जाने लगा। इस प्रकार वर्ण जाति मैं परिवर्तित हो गए और कालांतर में जाति प्रथा देश में एक बहुत बड़ा नासूर बन गई। इस नासूर से कितने ही लोगों के साथ छुआछूत जैसे अमानवीय कृत्य घटित हुए एवं कुछ मनुष्यों को जानवर से भी खराब माना जाने लगा। लोग गाय, भैंस, बकरी इत्यादि को तो घर में पालते थे परंतु निम्न समझी जाने वाले जातियों के लोगों को छूना तो दूर उनकी परछाई को भी खराब माना जाता था। वर्ण के जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो जाने के कारण समाज में छुआछूत की दुर्भावना से ऐसा भयंकर जहर फैल गया जिससे समझा जाने लगा कि छोटे जाति के लोगों को पढ़ाई लिखाई का कोई अधिकार नहीं हैं एवं उनका जीवन मात्र बेगार करने के लिए ही हैं।
वर्तमान सरकारी कार्यालय की वर्किंग से पुरानी वर्ण व्यवस्था को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है एवं लगता है कि जाति प्रथा वास्तव में वर्ण व्यवस्था का एक बिगड़ा हुआ रूप है। सरकारी कार्यालयों में अधिकारी, पर्यवेक्षक व कर्मचारी ग्रुप ए, ग्रुप बी, ग्रुप सी एवं ग्रुप डी मैं होते हैं। हर एक क़ो उसके स्तर के अनुसार सुविधाएं, बैठने की व्यवस्था व अधिकार होते हैं। अधिकारियों को बैठने के लिए एयर कंडीशनड चैंबर होते हैं, पर्यवेक्षकों को एयर कूल्ड हॉल होते हैं जबकि ग्रुप डी के कर्मचारियों को बाहर बरामदे में पंखे की हवा में बैठना पड़ता हैं। इस व्यवस्था से किसी को कोई आपत्ति नहीं है और ना ही किसी के मन में कोई ऊँच नीच की भावना उत्पन्न होती है। कोई भी व्यक्ति अच्छी पढ़ाई एवं परीक्षा पास करके अधिकारी बन सकता है, कुछ नंबर कम आए तो वह पर्यवेक्षक बन जाएगा और यदि बहुत कम पढ़ाई लिखाई की है तो वह ग्रुप डी में भर्ती हो जायेगा। साथ ही यह भी प्रावधान है कि किसी ग्रुप डी का बेटा या बेटी पर्यवेक्षक अथवा बड़ा अधिकारी बन सकता है या अधिकारी का बच्चा अगर अच्छे से मेहनत नहीं करेगा तो वह ग्रुप सी अथवा ग्रुप डी बन जायेगा। इस प्रकार के सिस्टम में कर्म को प्रधानता मिलती है ना कि उसके जन्म व माता पिता की स्थिति के आधार से उसे पोजीशन मिलती हैं।
समझो यदि अधिकारी का बेटा अधिकारी एवम चपरासी का बेटा चपरासी ही बने तो क्या हो ? ऐसा हो जाना वर्तमान जो वर्ण व्यवस्था जैसा सिस्टम है उससे जाति व्यवस्था मैं परिवर्तित हो जाने जैसा होगा। क्या इस प्रकार के सिस्टम को स्वीकार किया जा सकता है? यदि नहीं तो क्यों हम जाति व्यवस्था से उत्पन्न हुई छुआछूत जैसे दकियानूसी अमानवीय व्यवस्था को अभी भी मानते चले आ रहे हैं? यह प्रश्न हम सभी को अपने आप से करना चाहिए। छुआछूत मानने वाले व्यक्ति वास्तव में अपने आप को मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं। छुआछूत एक अभिशाप है एवं मानवता के गाल पर थप्पड़ है।
वर्ण एवं जाति के अंतर को सही रुप में समझने के पश्चात हम सभी को छुआछूत जैसी घिनोनी परंपरा को जड़ से समाप्त करने का बीड़ा उठाना चाहिए एवमं दृढ निश्चय करना चाहिए की हम स्वमं किसी भी स्वरुप में छुआछूत नहीं अपनायेंगे और ना ही किसी दूसरे को छुआछूत अपनाते हुए देखकर चुप रहेंगे।
रघुवीर प्रसाद मीना
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