Thursday 25 August 2016

भ्रष्टाचार मिटाने के लिए करनी होगी सम्पूर्ण व्यवस्था की समीक्षा।

भ्रष्टाचार आमआदमी को होने वाले विभिन्न समस्याओं की जड़ है। सार्वजनिक संसाधनों का चुनिंदा लोगों द्वारा दोहन, नियमों की आड़ में सरकार की आमदनी पर प्रहार, सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग, गरीब का सरकारी तंत्र में शोषण, आवश्यक वस्तुओं जैसे खाद्य सामग्री, फल, सब्जी, दूध, मकान, कपड़े, दवाईयाँ, अध्ययन सामग्री इत्यादि एवं सेवाओं  जैसे स्वास्थ्य, पानी की आपूर्ति, शिक्षा, परिवहन इत्यादि की ऊँची दरें, अधिक लागत से बनाये जा रहे इन्फ्रास्ट्रक्चर की खराब गुणवत्ता इत्यादि भ्रष्टाचार के व्याप्त होने के ही दुष्फल है। अतएव भ्रष्टाचार के कारण आमआदमी सम्मानजनक जीवन नहीं जी पा रहा है, उसका जीवनस्तर दिनों-दिन गिर रहा है तथा देश में नैतिकता का पतन हो रहा है।

भारत के संविधान में भ्रष्टाचार और बेईमानी नामक शब्दों का कहीं भी उल्लेख नहीं है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भ्रष्टाचार का विकराल रूप आजादी के उपरान्त उत्पन्न हुआ है। देश में प्रजातांत्रिक सरकार है, जिसके 3 स्तम्भ विधायिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका है। प्रजातंत्र में व्यवस्था को स्थापित करने के लिए विधायिका नियम कानून बनाती है, न्यायपालिका आवश्यकता पड़ने पर बने हुए कानूनों की व्याख्या कर न्याय व्यवस्था स्थापित करती है तथा कार्यपालिका व्यवस्था को चलाने की विभिन्न गतिविधियों को निष्पादित करती है।

देश की वर्तमान व्यवस्था के अनुसार केन्द्र व राज्य सरकार चुनने के लिए चुनाव होते हैं। इन चुनावों में प्रारम्भ से ही भ्रष्टाचार के दुष्फल के रूप में प्राप्त की गई काली कमाई का प्रयोग शुरू हो जाता है। लगभग सभी राजनीतिक दल अपारदर्शी तरीके से कई व्यवसायिक घरानों व अन्य से आर्थिक सहयोग प्राप्त करते हैं एवं ऐसे कई लोगों को प्रत्याशी घोषित करते हैं, जिनके पास खर्च करने के लिए भारी मात्रा में अवैध धन होता है। दूसरी ओर वोट डालने वाली बहुतायत जनता भी चुनावों के समय पैसे व अन्य विभिन्न प्रकार के लालच लेकर वोट देती हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि विधायिका की प्रथम सीढ़ी/जड़ में ही भ्रष्टाचार का एक पेड़ लग जाता है जिसमें आगे चलकर भ्रष्टाचार जनित विषाक्त फल ही आयेंगे। सुनने में आता है कि न्यायपालिका में उच्च न्यायधीशों की नियुक्ति में बहुत अधिक पक्षपात होता है, कुछ वर्ग विशेष के लोग जिनके परिवारजन या रिश्तेदार उच्च पदों पर आसीन होते हैं वे ही लोग अधिकतर समय न्यायधीश बनते हैं। साथ-साथ न्यायपालिका द्वारा न्यायधीशों की नियुक्ति के सम्बंध में विधायिका व कार्यपालिका द्वारा उठाये गये कदमों का कठोर विरोध किया जाता रहा है। इस प्रकार का पक्षपात एक रूप से देखें तो प्रजातांत्रिक भावना के खिलाफ भ्रष्टाचार के समान है। कार्यपालिका जिसमें केन्द्र व राज्य के शासन व प्रशासन सम्मिलित होते हैं, उनमें मंत्रियों एवं बड़े पदों पर अधिकारियों की नियुक्ति के समय भी कुछ वर्ग विशेष के लोगों को ही ज्यादा महत्व दिया जाता रहा है। ऐसे लोग महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होने के पश्चात् देश के बड़े बहुमत के कल्याण हेतु योजनाओं का सृजन व क्रियान्वित न करके केवल कुछ चुनिंदा व्यवसायिक घराने व लोगों को लाभ पहुँचाने वाली व्यवस्था बनाते हैं जिसके सहारे ये लोग नैतिक/अनैतिक सभी रास्ते अपनाकर स्वयं धनवान् बनते हैं और इस दौड़ में राजनीतिज्ञों व बड़े अधिकारियों को शामिल कर भ्रष्टाचार को पनपाते हैं। साधारणतः ऐसा लगता है कि मानों देश की सम्पूर्ण व्यवस्था कुछ लोगों को धनी बनाने के लिए ही बनी हुई है।

देश में 10-15 प्रतिशत लोगों को बहुत अधिक ईमानदार माना जा सकता है एवं इतने ही प्रतिशत लोगों को बहुत अधिक भ्रष्ट कहा जा सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि करीब 70-80 प्रतिशत की बड़ी आबादी न तो बहुत अधिक ईमानदार है और न ही बहुत अधिक भ्रष्ट। यह बड़ी आबादी देश में लागू व्यवस्था/सिस्टम को देखकर अपने कार्य करने के तरीकों को तय करती है। जब सामान्य लोग देखते हैं कि देश की व्यवस्था में भ्रष्ट लोगों का ज्यादा कुछ बिगड़ता नहीं है तो उनमें से कई लोग भ्रष्टाचार की ओर आकर्षित हो जाते हैं एवं जब लगने लगता है कि भ्रष्टाचार पर कड़ाई से अंकुश लगाया जा रहा है तो सामान्य लोग ईमानदारी की ओर अग्रेषित होते हैं। भ्रष्टाचार एक ऐसा कुचक्र है, जिसकी चपेट में आने वाले अधिकतर व्यक्ति भ्रष्टाचार के कारण हुई आर्थिक हानि को भ्रष्टाचार के माध्यम से ही क्षतिपूर्ति करना चाहते हैं।

सामाजिक दृष्टिकोण की भी लोगों को भ्रष्ट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। जो लोग ज्यादा पैसा कमा कर आगे बढ़ जाते हैं, लोग उनका सम्मान करने लगते हैं। जब ऐसे लोग सार्वजनिक कार्यों हेतु दान इत्यादि देते हैं तो कोई भी उनके स्रोत के बारे में प्रश्न नहीं उठाता है। लोग अपनी आवश्यक्ताऒं के अलाॅवा फीलिंग आॅफ इम्पाॅर्टेन्स / रूतबे की भावना को पूर्ण करने के लिए ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करते हैं। भ्रष्ट तरीके अपनाकर लोग जस्टीफाई करते हैं कि वे अकेले ही ऐसा नहीं कर रहे है, वे तो और लोगों की तुलना में ईमानदार है और आगे से नहीं मांगते है, लोग जबरदस्ती दे जाते हैं इत्यादि-इत्यादि। 

भ्रष्टाचार को कम करने के लिए व्यक्तिगत, सामाजिक व सरकारी स्तर पर निम्नलिखित कदम उठाये जाने चाहिए -

व्यक्तिगत - देश का हर नागरिक स्वयं ईमानदार बने एवं वह अपनी फीलिंग आॅफ इम्पाॅर्टेन्स को धन के स्तर से प्राप्त न करके ईमानदारी व नैतिकता के स्तर से प्राप्त करें। धनवान होने की होड़ में नैतिकता को नहीं छोड़ें। भ्रष्टाचार को सहन करना भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना है। जब भी ऐसे प्रकारण प्रकाश में आयें तो उन्हें सरकार द्वारा नियुक्त जाँच एजेंसियों के संज्ञान में लाया जाये। 

समाजिक स्तर - यदि समाज को भ्रष्टाचार पर गहरा प्रहार करना है तो व्यक्ति के सामाजिक स्टेटस को धन के स्तर से नहीं देखें बल्कि यदि किसी व्यक्ति के पास अधिक धन है तो उसके आय के स्रोत के बारे में अवश्य विचार करें। और यदि आय के स्रोत गरीबों के शोषण से सम्न्बंधित या अनैतिक/अवैध है तो उसे समाज में महत्व नहीं दिया जाना चाहिए।

सरकारी स्तर - कृत्रिम कारणों से निजी लाभ हेतु जमाखोरी कर महँगाई बढ़ाने वालों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की जाये। किसान की फसल हेतु उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन तय करते समय कम से कम यह तो ध्यान रखा जाये कि उनके परिवार सम्मानजनक रूप से भरण-पोषण कर सके व बच्चे पढ़ सकें। सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन एवं सरकार बनने की प्रथम सीढ़ी चुनाव में अधिक से अधिक पारदर्शिता लाई जाये। राजनीतिक दलों के द्वारा प्राप्त किये जाने वाले चन्दे एवं खर्चों का पूर्ण ब्यौरा रखना अनिवार्य किया जाये, इन्हें सूचना के अधिकार के तहत् सूचना देने के लिए बाध्य किया जाये। अनैतिक व अवैध रूप से धन एकत्रित करने वालों को चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य करार दिया जाये। प्रजातंत्र की भावना का आदर करते हुए न्यायपालिका व सरकार के उच्च पदों पर चयन हेतु पारदर्शिता आये एवं ऐसी व्यवस्था बने कि देष के हर वर्ग/समुदाय का उनमें समुचित प्रतिनिधित्व हो। 

यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि विजलेंस एवं सीबीआई जैसे विभागाों में प्रतिनियुक्तियाँ ईमानदार व उच्च नैतिकता वाले लोगों की हो, इन विभागों के लोग यदि भ्रष्टाचार में लिप्त पाये जायें तो उनके विरूद्ध ज्यादा सख्त कार्यवाही हो। जाँच निष्पक्ष तथा बिना किसी दबाव के हो। गलती एवं बेईमानी में अन्तर को समझें। साथ ही दोष सिद्ध करने की कार्यवाही को त्वरित किया जाये। यदि किसी व्यक्ति की स्वयं की गलती अथवा औरों की गलती के कारण विजलेंस/सीबीआई के केस बन जाते हैं एवं उनकी जाँचे लम्बे समय तक चलती है तो इस दौरान एक योग्य व्यक्ति भी अयोग्य होकर रह जाता है और ऐसी परिस्थितियों में वह सेवा में रहता तो है परन्तु उसकी निष्क्रिय भावना से विभाग को नुकसान ही होता है। ऐसे प्रकरणों का साईड इफेक्ट यह भी है कि गलती न होने के डर से कई और प्राधिकारी भी निर्णय नहीं लेते हैं और संस्थाओं को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। सरकारी विभागों में इस प्रकार का भय देश की उन्नति को रोकने का एक कारक है। विजलेंस एवं सीबीआई जैसे विभाग सरकारी नौकरी करने वाले लोगों पर ही कार्यवाही करते हैं जबकि भ्रष्टाचार का प्रभाव राजनीति व निजी क्षेत्र में बहुत अधिक है, इन क्षेत्रों को भी जाँच एजेंसियों के दायरे में लाया जाये। सिस्टम में पारदर्शिता लायी जाये, अधिक से अधिक आईटी का उपयोग हो, नियमों को आसान बनाया जाये। भ्रष्टाचार में लिप्त रिश्वत लेने वाले व देने वाले दोनों को ही समान रूप से दोषी माना जाये।

अन्त में मैं कहना चाहूँगा कि ईमानदारी तो सबसे अपेक्षित है ही। बेईमान या भ्रष्ट होना ही असामान्य व्यवहार है, जिस पर व्यक्ति को स्वयं व व्यवस्था को काबू पाना होगा।
जय हिन्द। 

रघुवीर प्रसान मीना

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