Wednesday 31 August 2016

मनुष्य का शरीर हार्डवेयर एवं उसे मिली परवरिश सॉफ्टवेयर की भाँति होते है| ख़राब सॉफ्टवेयर्स को बहार निकलने व अच्छी सॉफरवर्स को मस्तिष्क में इंसटाल करने की जरूरत है|

rpmwu78
31.08.2016
कल सुबह मॉर्निंग वॉक के समय मैंने देखा कि एक धर्म विशेष का व्यक्ति उसके बेटे के साथ उछल-कूद एवं व्यायाम कर रहा था। तभी मेरे मन में एक ख्याल आया की वह व्यक्ति एवं उसका बेटा और अन्य लोगों मैं किसी प्रकार का कोई अंतर नहीं है सभी का शरीर एक जैसा ही है। सभी लोग आवश्यकता पड़ने पर एक दूसरे को खून  और बॉडी पार्ट डोनेट कर सकते हैं।

रेस,धर्म,समुदाय,वर्ण,जाति और वर्ग इत्यदि संसार के लोगों को विभिन्न ग्रुप्स में बांटते हैं। छोटे बच्चे के मस्तिष्क पर परवरिश का भारी प्रभाव पड़ता है। उसकी सोच पर सबसे ज्यादा इम्पैक्ट उसके माँ-बाप के धर्म, समाज में रेस, वर्ण,जाति या वर्ग के भेद के कारण उनके सामाजिक स्तर, आसपास के माहौल, बोली भाषा व रहन-सहन का होता है।सभी मनुष्यों के शारीरिक रूप से समान होने के बाबजूद इन्ही सब अंतरों के कारण विभिन्न धर्म, रेस, जाति, समुदाय या वर्ग के लोग अलग अलग तरीके से सोचने लग जाते है। धर्म, रेस और जाति के नाम पर तो कुछ लोग एक दूसरे से बहुत नजदीक या फिर एकदम अलग मानने लगते है।

अब एक स्तिथि के बारे में विचार करो कि यदि जन्म के समय अस्पताल में एक मुस्लिम बच्चा एक ब्रामण बच्चे से बदल जाये तो क्या होगा ? जो बच्चा मुस्लिम धर्म में पल कर बड़ा होगा वह सामान्य मुस्लिम की तरह व्यव्हार करेगा एवम जो बच्चा ब्राह्मण के घर बड़ा होगा वह ब्राह्मण की तरह रहेगा । ऐसे और कुछ भी उदहारण हो सकते है। कुलमिलाकर तात्पर्य यह है कि परवरिश मनुष्य के माइंड पर भारी असर करती है। यह कंप्यूटर्स की सॉफ्टवेर की भांति है।

आवश्यकता है कि हम सभी इस बात को मन से समझे की मनुष्य सभी एक है, उनकी सोच में अंतर उनकी परवरिश व् बचपन में देखे गए माहौल, सामाजिक तथा शिक्षा के स्तर से आता है। किसी व्यक्ति को यदि अच्छा माहौल नहीं मिला होता तो वह भी ख़राब लोगों की गिनती में आता। हम सभी को ख़राब सॉफ्टवेयर्स को बहार निकलने व अच्छी सॉफरवर्स को मस्तिष्क में इंसटाल करने की जरूरत है ताकि सभी एक दूसरे के साथ प्यार मोहब्बत व सहिष्णुता से रह कर उन्नति करे, आगे बढ़ें और देश के लिए असेट बने।


रघुवीर प्रसाद मीना ।

अन्धविश्वास त्याग कर प्रकृति एवम अपने माँ-बाप, भाई-बहन, बच्चे, रिश्तेदार, मित्र, समाज, जानकार व अन्य अच्छे लोगों के प्रति कृत्यज्ञ होने में समझदारी है।

rpmwu77
31.08.2016
अक्सर लोग बड़े-बड़े मंदिरों में जाकर भगवान की मूर्ति की पूजा करते हैं या विभिन्न स्वामियों के दरबार में जातें है तथा भारी-भरकम चढ़ावा भेंट करते हैं और ऐसे लोगों को लाभ पहुँचाते है, जिनके पेट पहले से ही भरे हुए है। ऐसे लोगों के साथ विभिन्न प्रकार के धोखे एवं बत्तमिजियाँ भी होती हैं। इसी प्रकार कई लोग आये दिन कथा, भागवत, यज्ञ, पदयात्रा में अपना समय, धन तथा ऊर्जा नष्ट करते रहते हैं और आशा करते हैं कि भगवान उनके लिए कुछ अच्छा कर देगा। सोचने का विषय है कि इस प्रकार के अन्धविश्वासों से क्या तो मिला है और क्या मिल सकता है? इस प्रकार की अंधी चाल केवल व्यक्ति में डर की भावना तथा अवैज्ञानिक सोच को प्रदर्शित करती है। लोगों के इस प्रकार के क्रिया कलापों को देख कर ऐसा लगता है कि ये लोग बिना मेहनत किये जीवन में  अन्धविश्वास के माध्यम से उन्नति व सफलता चाहते हैं।

यदि पूजा एवम कृतज्ञता व्यक्त करनी ही है तो धरती माँ की करें, जिसका कि हर जीव पर इतने एहसान हैं जिन्हें वह कभी चुका नहीं सकता। हर व्यक्ति धरती माँ पर पला, बड़ा हुआ व निवास करता है, उसमें पैदा होने वाली फसल से जीविकोपार्जन करता है। इसी प्रकार सूरज जो कि ऊर्जा का अल्टीमेट स्रोत है का कृतज्ञ होना चाहिए और कृतज्ञ होना चाहिए वायु मण्डल का जिसके बिना हम जिन्दा ही नहीं रह सकते हैं। कृतज्ञ होना चाहिए पेड़ों का जो वातावरण से अशुद्ध हवा लेकर हमें जीने के लिए शुद्ध हवा देता है तथा उस प्राकृतिक सिस्टम के जिससे वर्षा होती है। इनके अलावा व्यक्ति को अपने माँ-बाप, भाई-बहन, बच्चे, रिश्तेदार, मित्र, समाज व जानकार लोग जो कि जीवन में एक दूसरे के काम आते हैं, के प्रति कृतज्ञता की भावना रखनी चाहिए। प्रकर्ति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए हमें प्राकर्तिक सिस्टम से खिलवाड़ नहीं करके उसे और समृद्ध करने का भरसक प्रयास करना चाहिए तथा अपने माँ-बाप, भाई-बहन, बच्चे, रिश्तेदार, मित्र, समाज व जानकार लोगों के काम आने लिए यथा सम्भव कोशिश करनी चाहिए।

रघुवीर प्रसाद मीना

  

दाना माझी का मृत पत्नी के शव को कंधे पर लेकर 10 किलोमीटर तक पैदल रास्ता तय करना व्यवस्था के गाल पर थप्पड़ है। |

rpmwu76
31.08.2016
दिनांक 25.08.2016 को सोशल मीडिया, इलेक्ट्राॅनिक व प्रिन्ट मीडिया के माध्यम से पता चला की उड़ीसा के कालाहाड़ी जिले का एक गरीब आदिवासी दाना माझी को खराब आर्थिक हालात एंव सरकारी तंत्र से सहायता नहीं मिलाने के कारण उसकी मृत पत्नी के शव को कंधे पर रखकर 60 किलोमीटर दूर स्थित उसके गाँव के लिए जाने हेतु मजबूर होना पड़ा। दाना माझी ने उसके जीवन के भयंकर त्रासदीपूर्ण समय में मृत पत्नी के शव को कंधे पर लेकर 10 किलोमीटर तक का रास्ता तय भी कर लिया। साथ ही 12 वर्ष की उसकी छोटी बेटी सामान के साथ पैदल चलकर उसका साथ दे रही थी। 10 किलोमीटर की इस यात्रा में रोड पर कई लोगों ने इस घटना को देखा होगा परन्तु किसी के द्वारा उसे सहयोग न करना हमारे देश के नागरिको में नैतिकता के पतन को इंगित करता है। उड़ीसा में शायद इस प्रकार की घटनाएं पहले भी हुई होंगी, जिसके कारण मुख्यमंत्री ने सरकारी अस्पतालों से घर तक शव भेजने हेतु मुफ्त वाहन उपलब्ध कराने की योजना भी घोषित की हुई है। परन्तु सिस्टम की उदासीनता को देखो कि अस्पताल प्रशासन ने दाना माझी की मदद नहीं की और यहाँ तक कि प्रशासनिक जाँच में अस्पताल के प्रशासन को प्रथमदृष्ट्या क्लीन चिट दे दी और कह दिया कि दाना माझी ने मदद ही नहीं माँगी।

यह घटना देश में चल रहे शासन व्यवस्था के गाल पर तमाचा है। गरीब आदिवासियों की आर्थिक दुर्दशा क्यों  है?   उनमें उनके अधिकारों हेतु माँग करने का साहस क्यों नहीं है ?   आदिवासियों के मन में सरकार की व्यवस्था पर भरोसा क्यों नहीं बन पाया है ?  क्या दाना माझी जिस गाँव में निवास करता है, वहाँ कोई जागरूक, समाजसेवाभावी, पढे़-लिखे व शिक्षित व्यक्ति नहीं है ? यदि हैं तो दाना माझी ने उनसे समय पर सहायता लेने के बारे में क्यों नहीं सोचा होगा? ये सभी विचारणीय बिन्दु है। 

ऐसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो इसके लिए सरकार को उसकी नीतियों में आवश्यक बदलाव करके गरीब, असहाय और कमजोर लोगों के कल्याण व उनके आर्थिक उत्थान हेतु ठोस योजनाएँ बनाकर उनकी क्रियांविति करवानी होगी। सिस्टम को प्रभवी बनाने एवम दूसरों के लिए उदाहरण पेश करने के लिए दोषियों को कठोर दंड देना होगा । व्यक्तिगत तौर पर अपने आपको इन्सान समझने वाले सरकार व निजी क्षेत्र में कार्य करने वाले देश के हर नागरिक को चाहिए कि वह गरीब, असहाय और कमजोर लोगों की तत्परता से मदद करे। व्यकित जिस क्षेत्र में रहता है, वहाँ पर गरीब, असहाय और कमजोर लोगों में जागरूकता लाये कि उनके क्या-क्या अधिकार हैं एवं समस्या होने पर उनमें इतना साहस होने की भावना पैदा करे कि वे सरकार द्वारा संचालित योजनाओं की क्रियान्वित नहीं होने के प्रकरणों को क्षेत्र के जागरूक, समाजसेवाभावी, पढे़-लिखे व शिक्षित लोगों के संज्ञान में लायें और ये लोग घटना पर तत्परता से सक्रिय होकर मदद करे।

रघुवीर प्रसाद मीना

Monday 29 August 2016

राजस्थान में आदिवासी व भविष्य की राजनिति।

राजस्थान में आदिवासी व भविष्य की राजनिति।

सर्व विदित है कि लगभग 1000 ई. से पूर्व आदिवासी समुदायों का राजस्थान के कई इलाकों पर राज था। कालान्तर में धोखे से हमारा राज छिन गया एवं आज लगभग 1000 वर्ष बाद भी आदिवासियो की राज में अहम् भूमिका नहीं है। 

आरक्षण के लाभ से आदिवासी समुदाय के लोग बड़ी संख्यॉ में सरकारी अधिकारी व कर्मचारी बने है। जिससे लोगो की आर्थिक हालात में सुधार हुआ है। परन्तु राजनिति जैसे अतिमहत्वपूर्ण क्षेत्र में हमारे समुदाय का कोई बडा रोल नहीं रह पाया है। आज भी समाज को राजनैतिक रूप से पिछड़ा हुआ ही कहा जा सकता है। 

राजस्थान के आदिवासी समुदाय सामान्यत: कॉंग्रेस पार्टी के साथ रहे है। बाद में डॉ किरोड़ी लाल जी, नंदलाल मीणा जी व कुछ अन्य राजनीतिज्ञों की बजह़ से बी जे पी को भी समर्थन देने लगे। श्रीमति जसकौर मीना जी व नमोनारायण मीना जी केन्द्र में मंत्री रह चुके है। एक प्रमुख जनाधार वाले राजनीतिज्ञ डॉ किरोड़ी जी एम.पी. रहे है, राज्य में मंत्री रहे है एवं राज्य की राजनिति में उनका बडा नाम रहा है। डॉ सहाब ने 2008 में बीजेपी को भारी क्षति पहुँचाई जिसके कारण बी जे पी को सरकार से हाथ धोना पड़ा। 2013 में डॉ सहाब ने नई पार्टी का गठन कर चुनाव लड़ा परन्तु परिणाम वाँछित नहीं रहे। जनरल सीट्स पर आदिवासी समुदाय के वोट बँट जाने के कारण समुदाय को भारी नुकसान हुआ।

पूर्व की भॉति अब राजा महाराजाओं का राज नहीं है। देश में प्रजातंत्र है, हर व्यक्ति के वोट की क़ीमत समान है। राजस्थान राज्य आदिवासी समुदायों की जनसंख्यॉ क़रीब 1 करोड़ है, जो कि प्रदेश की जनसंख्यॉ का लगभग 13.5 % है।  इसी प्रकार एस सी की जनसंख्यॉ भी लगभग 18 % है। 200 सीटों की विधानसभा में एस टी व एस सी के लिए क्रमश: 25 व 34  (कुल 59) सीटेंआरक्षित है। और कई अन्य सामान्य सीटों पर इन दोनों कैटेगरिज़ के लोग परिणाम को काफ़ी हद तक प्रभावित करते है। 

डॉ सहाब के राजपा के प्रयोग के दौरान व लोगो के सामान्य व्यवहार  व बातों से स्पष्ट आभास होता है कि लोग आदिवासी समुदाय का कितना विरोध करते है। राज्य सरकार तक जातिप्रमाणपत्रों के बनने में बेमतलब अड़चनें पैदा कर रही है। संवैधानिक संस्था राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग द्वारा स्पष्ट करने के बाबजूद राज्य सरकार मीना समुदाय के लोगो को जातिप्रमाणपत्र जारी करने के प्रकरण में बेबजह परेशान कर रही है। 

आज सभी प्रमुख जाति व समुदाय के लोगो में शिक्षा का स्तर काफ़ी अच्छा हो चुका है। जिसके कारण लोग भेड़ चाल नहीं चलते है। अधिकतर लोग स्व: विवेक से काम करते है। इस पहलू का एक परिणाम यह है कि लोगो के युनाईटेड रहने की सम्भावना कम हो गई है। अत: हर जाति व समुदाय आन्तरिक रूप से एक साथ नहीं रहकर कुछ भागो में अवश्य विभक्त हो गये है। अतएव राजस्थान जैसे राज्य में कोई भी एक जाति या समुदाय अकेले अपने दम पर सरकार नहीं बना सकते है। दूसरी जातियों व समुदायों का सपोर्ट अवश्य ही  लेना होगा। 

हमें सभी राजनीतिक पार्टियों में अपनी दख़लंदाज़ी रखनी चाहिये। हमारे नेता सभी दलों में हो, इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। आवश्कता यह है कि सामुदायिक व सामाजिक मुद्दों पर सभी राजनितिज्ञ एकमत से संदेश दे। हम यदि हमारे समुदाय के राजनीतिज्ञ को मुख्यमंत्री पद हेतु प्रोजेक्ट कर सके तो सबसे अच्छी बात है। यदि ऐसा नहीं कर पाएं तो हमें हमारे राजनीतिज्ञों की सलाह से समझदारी अपनाते हुए अन्य योग्य तथा हमारे समुदाय के लिए अच्छी सोच रखने वाले राजनीतिज्ञ को सहयोग करना समाज हित में लाभदायक होगा। हमें बेमतलब में दूसरे समाज के राजनीतिज्ञों को नाराज या अपमानित करने से बचना चाहिए। यदि हम अच्छा व्यव्हार करेंगें तो दूसरे लोग  भी हमारे साथ अच्छा ही व्यव्हार करेंगे । 


रघुवीर प्रसाद मीना 

देश व समाज की उन्नति का अभिप्राय एवमं हमारा व्यक्ति योगदान।

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29.08.2016
सरकार   हर समझदार नागरिक चाहता है कि देश में उन्नति व विकास हो। पर यक्ष प्रश्न है कि देश की उन्नति व विकास का वास्तव में तात्पर्य क्या है? क्या आजादी के बाद से आज तक देश में रहने वाले सभी जाति/समुदाय/वर्ग/धर्म के नागरिको की संविधान की भावना के अनुरूप उन्नति हो पायी है? इन प्रश्नों का संतुलित भाव से उत्तर ढूँढना होगा और देश के जो नागरिक विकास की दौड़ में पीछे छूट गए है उन्हें साथ लाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य करना होगा।

देश में रह रहे हर नागरिक के जीवन में यदि खुशहाली आये, उत्पीड़न नहीं हो, ऊँच-नीच की भावना की समाप्ति हो, नैतिकता की बढ़ोत्तरी हो, नागरिक साहसी बनें, धार्मिक अंधविश्वसों की मान्यता में कमी आये, शिक्षा का प्रसार हो, गरीब, कमजोर व असहाय लोगों को आगे बढ़ने हेतु ठोस नीति की क्रियान्वति हो, दुनियाँ के अन्य देशों से जितना हो सके हमारे रिश्ते बेहतर हो, नई तकनीक की खोज व इस्तेमाल में हम अग्रणी बनें, तो कहा जा सकता है कि हमारा देश व उसके सभी नागरिक वास्तव में उन्नति कर रहे है।

देश की उन्नति में देश के नागरिकों का बहुत महत्व है। जागरूक व्यक्ति स्वयं के उत्थान के साथ देश के उत्थान हेतु प्रयास करते हैं। सामान्य जनता देश में बनी हुई व्यवस्था में जीवनयापन करती है। और कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जिनके कार्यकलापों से देश की छवि खराब होती है या अवनति होती है या देश को नुकसान होता है। अधिकतर नागरिक मध्यम श्रेणी में आते हैं। आवश्यकता है कि सरकार व हम सभी को व्यक्तिगत एवम सामूहिक प्रयत्न करके अधिक से अधिक नागरिकों को ऐसे लोगों की गिनती में सम्मिलित करे जो कि अपने कार्यों, कौशलता, योग्यता व आचरण से देश व समाज को उन्नति की ओर ले जायें।

अब आगे विचार करें कि उन्नति के इन मानकों में मेरा स्वयं का क्या योगदान हो सकता है ? हर शिक्षित और समझदार व्यक्ति अपने जीवन में यदि नैतिकता को अपनाये, जो लोग पीछे छूट गये हैं उन्हें आगे लाने में मदद करे, अंधविश्वास व कुरीतियों को मिटाने में योगदान दे, स्वयं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चीजों को देखे तथा तदानुसार  विचारधारा विकसित करे, तो हर व्यक्ति देश और समाज की उन्नति में अपेक्षित योगदान प्रदान कर सकता है।


हम सभी को अपने-अपने विशेष क्षेत्र चुन लेने चाहिए ताकि हम रोजमर्रा के अपने कार्यों के अलावा देश के नागरिको को उनकी उन्नति के लिए सकारात्मक योगदान दे सके।



रघुवीर प्रसाद मीना

Thursday 25 August 2016

उन्नति व सफलता के लिए बदलनी होगी सोच

अमूमन कई लोगों को कहते हुए सुना होगा कि आॅफिस में कोई काम ही नहीं है। थोड़ा बहुत ही काम है, गपशप कर व घूम-फिर कर आ जाते हैं इत्यादि इत्यादि। यहाँ तक कि बच्चों के माँ - बाप भी इस बात को रिश्ते इत्यादि तय करते समय बड़े गर्व से कहते हैं। लोगों की इस प्रकार की सोच बड़ी विचित्र एवं गैरजिम्मेदारीपूर्ण है। ऐसी सोच उन्नति नहीं होने का मुख्य कारण भी है। ऐसे लोग अपनी ड्यूटी के कार्य को नहीं करके अनेको प्रकार के धर्मिक अंधविश्वास व कुरीतियों को बढ़ावा देने में भी लिप्त रहते हैं।

जो भी व्यक्ति सरकारी कार्यालयों में कार्य करते हैं, वे भली-भाँति परिचित हैं कि कार्यालयों में उन्हीं लोगों को कार्य नहीं मिलता है, जिनकी कौशलता व काम करने की योग्यता कमजोर होती है। यदि कोई व्यक्ति अच्छा कार्य करने योग्य होता है, तो उसे जरूरत से ज्यादा कार्य आबंटित किया जाता है। सामान्यतः यदि व्यक्ति के पास कार्य नहीं है तो उसे समझ लेना चाहिए कि उसे उसकी कौशलता में सुधार की आवश्यकता  है। व्यक्ति का उसके पास काम न होने की सोच का रवैया न केवल सरकारी बल्कि व्यक्तिगत जीवन पर भी कुप्रभाव डालता है। ऐसे व्यक्तियों के परिवारजन व बच्चे भी उन्हें बहुत उपयोगी नहीं समझ कर आदर के भाव से नहीं देखते हैं और न ही ऐसे लोग किसी के आदर्श  बनने के पात्र होते हैं।

आवश्यकता है कि उक्त प्रकार की सोच को एकदम बदला जाये। यह कहते हुए दुःख होना चाहिए कि मेरे पास कार्य नहीं है, मैं आॅफिस में ऐसे ही जाकर आ जाता हूँ। हर व्यक्ति अपनी कौशलता में सुधार करके जिस संस्था में कार्य कर रहा है, उसमें एक असैट होने की छवि विकसित करे ताकि साथ कार्य करने वाले, परिवारजन व बच्चे सभी सम्मान करें और उसे अपना आदर्श  मानें। 

रघुवीर प्रसाद  मीना

भ्रष्टाचार मिटाने के लिए करनी होगी सम्पूर्ण व्यवस्था की समीक्षा।

भ्रष्टाचार आमआदमी को होने वाले विभिन्न समस्याओं की जड़ है। सार्वजनिक संसाधनों का चुनिंदा लोगों द्वारा दोहन, नियमों की आड़ में सरकार की आमदनी पर प्रहार, सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग, गरीब का सरकारी तंत्र में शोषण, आवश्यक वस्तुओं जैसे खाद्य सामग्री, फल, सब्जी, दूध, मकान, कपड़े, दवाईयाँ, अध्ययन सामग्री इत्यादि एवं सेवाओं  जैसे स्वास्थ्य, पानी की आपूर्ति, शिक्षा, परिवहन इत्यादि की ऊँची दरें, अधिक लागत से बनाये जा रहे इन्फ्रास्ट्रक्चर की खराब गुणवत्ता इत्यादि भ्रष्टाचार के व्याप्त होने के ही दुष्फल है। अतएव भ्रष्टाचार के कारण आमआदमी सम्मानजनक जीवन नहीं जी पा रहा है, उसका जीवनस्तर दिनों-दिन गिर रहा है तथा देश में नैतिकता का पतन हो रहा है।

भारत के संविधान में भ्रष्टाचार और बेईमानी नामक शब्दों का कहीं भी उल्लेख नहीं है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भ्रष्टाचार का विकराल रूप आजादी के उपरान्त उत्पन्न हुआ है। देश में प्रजातांत्रिक सरकार है, जिसके 3 स्तम्भ विधायिका, न्यायपालिका व कार्यपालिका है। प्रजातंत्र में व्यवस्था को स्थापित करने के लिए विधायिका नियम कानून बनाती है, न्यायपालिका आवश्यकता पड़ने पर बने हुए कानूनों की व्याख्या कर न्याय व्यवस्था स्थापित करती है तथा कार्यपालिका व्यवस्था को चलाने की विभिन्न गतिविधियों को निष्पादित करती है।

देश की वर्तमान व्यवस्था के अनुसार केन्द्र व राज्य सरकार चुनने के लिए चुनाव होते हैं। इन चुनावों में प्रारम्भ से ही भ्रष्टाचार के दुष्फल के रूप में प्राप्त की गई काली कमाई का प्रयोग शुरू हो जाता है। लगभग सभी राजनीतिक दल अपारदर्शी तरीके से कई व्यवसायिक घरानों व अन्य से आर्थिक सहयोग प्राप्त करते हैं एवं ऐसे कई लोगों को प्रत्याशी घोषित करते हैं, जिनके पास खर्च करने के लिए भारी मात्रा में अवैध धन होता है। दूसरी ओर वोट डालने वाली बहुतायत जनता भी चुनावों के समय पैसे व अन्य विभिन्न प्रकार के लालच लेकर वोट देती हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि विधायिका की प्रथम सीढ़ी/जड़ में ही भ्रष्टाचार का एक पेड़ लग जाता है जिसमें आगे चलकर भ्रष्टाचार जनित विषाक्त फल ही आयेंगे। सुनने में आता है कि न्यायपालिका में उच्च न्यायधीशों की नियुक्ति में बहुत अधिक पक्षपात होता है, कुछ वर्ग विशेष के लोग जिनके परिवारजन या रिश्तेदार उच्च पदों पर आसीन होते हैं वे ही लोग अधिकतर समय न्यायधीश बनते हैं। साथ-साथ न्यायपालिका द्वारा न्यायधीशों की नियुक्ति के सम्बंध में विधायिका व कार्यपालिका द्वारा उठाये गये कदमों का कठोर विरोध किया जाता रहा है। इस प्रकार का पक्षपात एक रूप से देखें तो प्रजातांत्रिक भावना के खिलाफ भ्रष्टाचार के समान है। कार्यपालिका जिसमें केन्द्र व राज्य के शासन व प्रशासन सम्मिलित होते हैं, उनमें मंत्रियों एवं बड़े पदों पर अधिकारियों की नियुक्ति के समय भी कुछ वर्ग विशेष के लोगों को ही ज्यादा महत्व दिया जाता रहा है। ऐसे लोग महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होने के पश्चात् देश के बड़े बहुमत के कल्याण हेतु योजनाओं का सृजन व क्रियान्वित न करके केवल कुछ चुनिंदा व्यवसायिक घराने व लोगों को लाभ पहुँचाने वाली व्यवस्था बनाते हैं जिसके सहारे ये लोग नैतिक/अनैतिक सभी रास्ते अपनाकर स्वयं धनवान् बनते हैं और इस दौड़ में राजनीतिज्ञों व बड़े अधिकारियों को शामिल कर भ्रष्टाचार को पनपाते हैं। साधारणतः ऐसा लगता है कि मानों देश की सम्पूर्ण व्यवस्था कुछ लोगों को धनी बनाने के लिए ही बनी हुई है।

देश में 10-15 प्रतिशत लोगों को बहुत अधिक ईमानदार माना जा सकता है एवं इतने ही प्रतिशत लोगों को बहुत अधिक भ्रष्ट कहा जा सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि करीब 70-80 प्रतिशत की बड़ी आबादी न तो बहुत अधिक ईमानदार है और न ही बहुत अधिक भ्रष्ट। यह बड़ी आबादी देश में लागू व्यवस्था/सिस्टम को देखकर अपने कार्य करने के तरीकों को तय करती है। जब सामान्य लोग देखते हैं कि देश की व्यवस्था में भ्रष्ट लोगों का ज्यादा कुछ बिगड़ता नहीं है तो उनमें से कई लोग भ्रष्टाचार की ओर आकर्षित हो जाते हैं एवं जब लगने लगता है कि भ्रष्टाचार पर कड़ाई से अंकुश लगाया जा रहा है तो सामान्य लोग ईमानदारी की ओर अग्रेषित होते हैं। भ्रष्टाचार एक ऐसा कुचक्र है, जिसकी चपेट में आने वाले अधिकतर व्यक्ति भ्रष्टाचार के कारण हुई आर्थिक हानि को भ्रष्टाचार के माध्यम से ही क्षतिपूर्ति करना चाहते हैं।

सामाजिक दृष्टिकोण की भी लोगों को भ्रष्ट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। जो लोग ज्यादा पैसा कमा कर आगे बढ़ जाते हैं, लोग उनका सम्मान करने लगते हैं। जब ऐसे लोग सार्वजनिक कार्यों हेतु दान इत्यादि देते हैं तो कोई भी उनके स्रोत के बारे में प्रश्न नहीं उठाता है। लोग अपनी आवश्यक्ताऒं के अलाॅवा फीलिंग आॅफ इम्पाॅर्टेन्स / रूतबे की भावना को पूर्ण करने के लिए ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करते हैं। भ्रष्ट तरीके अपनाकर लोग जस्टीफाई करते हैं कि वे अकेले ही ऐसा नहीं कर रहे है, वे तो और लोगों की तुलना में ईमानदार है और आगे से नहीं मांगते है, लोग जबरदस्ती दे जाते हैं इत्यादि-इत्यादि। 

भ्रष्टाचार को कम करने के लिए व्यक्तिगत, सामाजिक व सरकारी स्तर पर निम्नलिखित कदम उठाये जाने चाहिए -

व्यक्तिगत - देश का हर नागरिक स्वयं ईमानदार बने एवं वह अपनी फीलिंग आॅफ इम्पाॅर्टेन्स को धन के स्तर से प्राप्त न करके ईमानदारी व नैतिकता के स्तर से प्राप्त करें। धनवान होने की होड़ में नैतिकता को नहीं छोड़ें। भ्रष्टाचार को सहन करना भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना है। जब भी ऐसे प्रकारण प्रकाश में आयें तो उन्हें सरकार द्वारा नियुक्त जाँच एजेंसियों के संज्ञान में लाया जाये। 

समाजिक स्तर - यदि समाज को भ्रष्टाचार पर गहरा प्रहार करना है तो व्यक्ति के सामाजिक स्टेटस को धन के स्तर से नहीं देखें बल्कि यदि किसी व्यक्ति के पास अधिक धन है तो उसके आय के स्रोत के बारे में अवश्य विचार करें। और यदि आय के स्रोत गरीबों के शोषण से सम्न्बंधित या अनैतिक/अवैध है तो उसे समाज में महत्व नहीं दिया जाना चाहिए।

सरकारी स्तर - कृत्रिम कारणों से निजी लाभ हेतु जमाखोरी कर महँगाई बढ़ाने वालों के विरूद्ध कड़ी कार्यवाही की जाये। किसान की फसल हेतु उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन तय करते समय कम से कम यह तो ध्यान रखा जाये कि उनके परिवार सम्मानजनक रूप से भरण-पोषण कर सके व बच्चे पढ़ सकें। सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन एवं सरकार बनने की प्रथम सीढ़ी चुनाव में अधिक से अधिक पारदर्शिता लाई जाये। राजनीतिक दलों के द्वारा प्राप्त किये जाने वाले चन्दे एवं खर्चों का पूर्ण ब्यौरा रखना अनिवार्य किया जाये, इन्हें सूचना के अधिकार के तहत् सूचना देने के लिए बाध्य किया जाये। अनैतिक व अवैध रूप से धन एकत्रित करने वालों को चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य करार दिया जाये। प्रजातंत्र की भावना का आदर करते हुए न्यायपालिका व सरकार के उच्च पदों पर चयन हेतु पारदर्शिता आये एवं ऐसी व्यवस्था बने कि देष के हर वर्ग/समुदाय का उनमें समुचित प्रतिनिधित्व हो। 

यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि विजलेंस एवं सीबीआई जैसे विभागाों में प्रतिनियुक्तियाँ ईमानदार व उच्च नैतिकता वाले लोगों की हो, इन विभागों के लोग यदि भ्रष्टाचार में लिप्त पाये जायें तो उनके विरूद्ध ज्यादा सख्त कार्यवाही हो। जाँच निष्पक्ष तथा बिना किसी दबाव के हो। गलती एवं बेईमानी में अन्तर को समझें। साथ ही दोष सिद्ध करने की कार्यवाही को त्वरित किया जाये। यदि किसी व्यक्ति की स्वयं की गलती अथवा औरों की गलती के कारण विजलेंस/सीबीआई के केस बन जाते हैं एवं उनकी जाँचे लम्बे समय तक चलती है तो इस दौरान एक योग्य व्यक्ति भी अयोग्य होकर रह जाता है और ऐसी परिस्थितियों में वह सेवा में रहता तो है परन्तु उसकी निष्क्रिय भावना से विभाग को नुकसान ही होता है। ऐसे प्रकरणों का साईड इफेक्ट यह भी है कि गलती न होने के डर से कई और प्राधिकारी भी निर्णय नहीं लेते हैं और संस्थाओं को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। सरकारी विभागों में इस प्रकार का भय देश की उन्नति को रोकने का एक कारक है। विजलेंस एवं सीबीआई जैसे विभाग सरकारी नौकरी करने वाले लोगों पर ही कार्यवाही करते हैं जबकि भ्रष्टाचार का प्रभाव राजनीति व निजी क्षेत्र में बहुत अधिक है, इन क्षेत्रों को भी जाँच एजेंसियों के दायरे में लाया जाये। सिस्टम में पारदर्शिता लायी जाये, अधिक से अधिक आईटी का उपयोग हो, नियमों को आसान बनाया जाये। भ्रष्टाचार में लिप्त रिश्वत लेने वाले व देने वाले दोनों को ही समान रूप से दोषी माना जाये।

अन्त में मैं कहना चाहूँगा कि ईमानदारी तो सबसे अपेक्षित है ही। बेईमान या भ्रष्ट होना ही असामान्य व्यवहार है, जिस पर व्यक्ति को स्वयं व व्यवस्था को काबू पाना होगा।
जय हिन्द। 

रघुवीर प्रसान मीना

Sunday 14 August 2016

70 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लोकतंत्र में देश के सभी नागरिको की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु उचित एवम सार्थक कदम उठाने की सख्त आवश्यकता है|

हमारा देश 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजो की हुकूमत से आजाद हुआ एवम अभी हाल में दिनांक 15 अगस्त 2016 को हमने 70 वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाया हैं । आज से 70 साल पहले देश में इम्पीरियल शासन व्यवस्था की जगह लोकतंत्र की स्थापना हुई। जब देश आजाद हुआ था तो यह माना जा रहा था कि शासन व सरकार के संचालन में लोकतंत्र आने से हर वर्ग, समुदाय, जाति और धर्म के जो भी लोग भारत में रहेंगे उनकी हिस्सेदारी होगी एवमं देश की आम जनता के लिए खुशहाली व समृद्धि आएगी एवं उनकी भाभी पीढ़ियों का भविष्य बेहतर होगा। देश के आजाद होने पर लोगों की स्थिति में सुधार हुआ परंतु यह देखा गया हैं कि कुछ वर्ग के लोगों की स्थिति तो पहले की तुलना में बहुत अधिक अच्छी हो गई हैं परंतु देश की बहुत बड़ी जनसंख्या की स्थिति मैं वांछित सुधार अभी 70 वर्षों के बाद भी नहीं हुआ है। प्रजातंत्र भी सही मायने में पूरी तरह से सरकार के हर क्षेत्र में लागू नहीं हुआ है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़े वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व शासन व प्रशासन दोनों के ही महत्वपूर्ण पदों पर लगभग नगण्य है। इसका मतलब ये हुआ कि 70 वर्ष के बाद भी इन वर्गो को प्रजातंत्र मैं उनका स्थान नहीं मिल पाया है। यह एक अति संवेदनशील मुद्दा है जिसे शासन व सरकार में उच्च पदों पर आसीन गणमान्य व्यक्तियों को समझना होगा एवं जल्द से जल्द इसके उपाय ढूंढने होंगे।


प्रजातंत्र को सरलता से समझने के लिए मानो की एक खेत में सिंचाई की जा रही है खेत एकदम समतल नहीं है कहीं ऊंचा है कहीं नीचा है। यदि साधारण तरीके से सिचाई की जाएगी तो जहां नीचा है वहां पानी बहुत अधिक इकठ्ठा हो जाएगा एवं जहां ऊंची जगह है वहां पानी पहुंच ही नहीं पाएगा। यही सिद्धान्त प्रजातंत्र को लागू करने के लिए समझना होगा। जिन लोगों तक प्रजातंत्र नहीं पहुंच पा रहा है उनके लिए विशेष उपाय करके प्रजातंत्र को पहुंचाना होगा ताकि देश की संपूर्ण जनसंख्या तक प्रजातंत्र पहुंच पाएँ। यही प्रजातंत्र की असली भावना है। जब प्रजातंत्र हर वर्ग, जाति, समुदाय व धर्म के लोगों का उनकी जनसंख्या के अनुसार समानुपातिक रिप्रजेंटेशन करवाने लगे तब ही माना जाएगा कि वास्तव में प्रजातंत्र स्थापित हो गया है। अन्यथा प्रजातंत्र केवल और केवल उन लोगों के लिए ही व्यवस्था है जो कि सामर्थ्य व् ताकतवर हैं एवमं गरीब व् कमजोर वर्ग के लोगों के लिए इसका कोई विशेष महत्व नहीं है । आजादी के 70 साल बाद तो देश के हर वर्ग,जाति, समुदाय व धर्म के लोगों को सरकार के हर स्तर पर खासकर “महत्वपूर्ण की पदों” पर समानुपातिक रिप्रजेंटेशन दिलवाने के लिए ठोस कदम उठाने की सख्त आवश्यकता हैं।


राज्यसभा, हायर ज्यूडिशरी, गवर्नर्स की नियुक्ति, सरकार के मंत्री, विभिन्न विभागों के की पदों, महाविद्यालयों की फैकल्टी इत्यादि में हर वर्ग,जाति, समुदाय व धर्म के लोगों का समानुपातिक रिप्रजेंटेशन होना चहिये। ऐसा करना ही वास्तव में स्वतंत्रता दिवस मनाने के हमारे मकसद को सफल बनाएगा।  


जय हिंद।

रघुवीर प्रसाद मीना

Friday 12 August 2016

वर्ण एवं जाति : अंतर को समझकर जाति व्यवस्था के कारण उत्त्पन्न हुई अमानवीय छुआछूत को दूर करने की मुहिम का हिस्सा बने।

कहा जाता है कि पहले वर्ण व्यवस्था मनुष्य के कर्म के आधार पर निर्धारित होती थी। यदि व्यक्ति उच्च समझे जाने वाले कार्य करता था तो उसे उच्च वर्ण का माना जाता था और यदि वह छोटे कार्य करने लग गया तो उसे छोटे वर्ण में गिना जाता था अर्थात कर्म की प्रधानता के आधार पर उसका वर्ण निर्धारित होता था। परंतु समय के साथ एवमं माँ-बाप की लालच से यह व्यवस्था बिगड़ गई और वर्ण जाति के रूप में परिवर्तित हो गए। ऐसा होने के पश्चात व्यक्ति का वर्ण उसके मां-बाप की पोजीशन से निर्धारित होने लग गये । यदि उच्च वर्ण के माँ-बाप की संतान उच्च समझे जाने वाले कार्य करने में अक्षम थी तो भी उसे माँ-बाप की स्थिति के आधार पर उच्च वर्ण का ही माने जाने लगा। इसी प्रकार निम्न वर्ग में आने वाले तबके के बच्चे चाहे कितने भी प्रखंड विद्वान हो उन्हें नीचा ही समझे जाने लगा। इस प्रकार वर्ण जाति मैं परिवर्तित हो गए और कालांतर में जाति प्रथा देश में एक बहुत बड़ा नासूर बन गई। इस नासूर से कितने ही लोगों के साथ छुआछूत जैसे अमानवीय कृत्य घटित हुए एवं कुछ मनुष्यों को जानवर से भी खराब माना जाने लगा। लोग गाय, भैंस, बकरी इत्यादि को तो घर में पालते थे परंतु निम्न समझी जाने वाले जातियों के लोगों को छूना तो दूर उनकी परछाई को भी खराब माना जाता था। वर्ण के जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो जाने के कारण समाज में छुआछूत की दुर्भावना से ऐसा भयंकर जहर फैल गया जिससे समझा जाने लगा कि छोटे जाति के लोगों को पढ़ाई लिखाई का कोई अधिकार नहीं हैं एवं उनका जीवन मात्र बेगार करने के लिए ही हैं।

वर्तमान सरकारी कार्यालय की वर्किंग से पुरानी वर्ण व्यवस्था को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है एवं लगता है कि जाति प्रथा वास्तव में वर्ण व्यवस्था का एक बिगड़ा हुआ रूप है। सरकारी कार्यालयों में अधिकारी, पर्यवेक्षक व कर्मचारी ग्रुप ए, ग्रुप बी, ग्रुप सी एवं ग्रुप डी मैं होते हैं।  हर एक क़ो उसके स्तर के अनुसार सुविधाएं, बैठने की व्यवस्था व अधिकार होते हैं। अधिकारियों को बैठने के लिए एयर कंडीशनड चैंबर होते हैं, पर्यवेक्षकों को एयर कूल्ड हॉल होते हैं जबकि ग्रुप डी के कर्मचारियों को बाहर बरामदे में पंखे की हवा में बैठना पड़ता हैं।  इस व्यवस्था से किसी को कोई आपत्ति नहीं है और ना ही किसी के मन में कोई ऊँच नीच की भावना उत्पन्न होती है। कोई भी व्यक्ति अच्छी पढ़ाई एवं परीक्षा पास करके अधिकारी बन सकता है, कुछ नंबर कम आए तो वह पर्यवेक्षक बन जाएगा और यदि बहुत कम पढ़ाई लिखाई की है तो वह ग्रुप डी में भर्ती हो जायेगा। साथ ही यह भी प्रावधान है कि किसी ग्रुप डी का बेटा या बेटी पर्यवेक्षक अथवा बड़ा अधिकारी बन सकता है या अधिकारी का बच्चा अगर अच्छे से मेहनत नहीं करेगा तो वह ग्रुप सी अथवा ग्रुप डी बन जायेगा। इस प्रकार के सिस्टम में कर्म को प्रधानता मिलती है ना कि उसके जन्म व माता पिता की स्थिति के आधार से उसे पोजीशन मिलती हैं।

समझो यदि अधिकारी का बेटा अधिकारी एवम चपरासी का बेटा चपरासी ही बने तो क्या हो ? ऐसा हो जाना वर्तमान जो वर्ण व्यवस्था जैसा सिस्टम है उससे जाति व्यवस्था मैं परिवर्तित हो जाने जैसा होगा। क्या इस प्रकार के सिस्टम को स्वीकार किया जा सकता है?  यदि नहीं तो क्यों हम जाति व्यवस्था से उत्पन्न हुई छुआछूत जैसे दकियानूसी अमानवीय व्यवस्था को अभी भी मानते चले आ रहे हैं? यह प्रश्न हम सभी को अपने आप से करना चाहिए। छुआछूत मानने वाले व्यक्ति वास्तव में अपने आप को मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं। छुआछूत एक अभिशाप है एवं मानवता के गाल पर थप्पड़ है।

वर्ण एवं जाति के अंतर को सही रुप में समझने के पश्चात हम सभी को छुआछूत जैसी घिनोनी परंपरा को जड़ से समाप्त करने का बीड़ा उठाना चाहिए एवमं दृढ निश्चय करना चाहिए की हम स्वमं किसी भी स्वरुप में छुआछूत नहीं अपनायेंगे और ना ही किसी दूसरे को छुआछूत अपनाते हुए देखकर चुप रहेंगे।


रघुवीर प्रसाद मीना

एस सी, एस टी, ओबीसी तथा सामान्य वर्ग के गरीब लोग ज्यादा बढ़ा रहे हैं अंधविश्वासयुक्त धार्मिक कर्मकांड एवम् कर रहे हैं खुद को व अपने के समाज को भारी नुकसान

सामान्यतः व्यक्ति उसके बच्चों के पालन-पोषण के माध्यम से वंषानुगत पारम्परिक विचारधारा को आगे बढ़ाता है। परन्तु निजी लाभ लेने वाले लोगों ने उनके बच्चों को तो उनके संस्कार दिये ही है, इसके साथ-साथ उन्होंने एससी, एसटी, ओबीसी तथा सामान्य वर्ग के गरीब लोगों के दिमाग में ऐसे विचार उत्पन्न कर दिये है कि इन वर्गों के अधिकतर लोग अंधविष्वासयुक्त धार्मिक कर्मकाण्ड जैसे पूजा-पाठ, कथा, भागवत, यज्ञ व पदयात्रा इत्यादि को अप्रत्याषित रूप से आगे बढ़ा रहे हैं एवं दिग्भ्रमित करने वाले लोगों के हितों के लिए बनाई गई व्यवस्था को सुदृढ़ कर रहे हैं तथा उसका प्रचार व प्रसार करने में बहुत अधिक समय व धन खर्च कर रहेे हैं। इसके पीछे एक छुपा हुआ उद्देष्य यह है कि ये लोग ऐसा समझते हैं कि धार्मिक कर्मकाण्ड करने से उनके द्वारा किये गये पाप कम हो जायेंगे।

धर्मांधता फैलाने वाले लोगों के स्वयं के बच्चे तो आज विज्ञान, इंजीनियरिंग, मेडिकल की उच्च स्तर की पढ़ाई करके वैज्ञानिक, इंजीनियर, सफल डाॅक्टर इत्यादि बन रहे हैं एवं आधुनिक जीवनषैली अपना रहे हैं एवं विदेषों में जाकर न केवल उच्च षिक्षा प्राप्त करते हैं बल्कि वहीं जाॅब ढूढ़ लेते हैं एवं सैटल हो जाते हैं। दूसरी ओर एससी, एसटी, ओबीसी तथा सामान्य वर्ग के गरीब लोग इन धर्मांधता फैलाने वाले चालाक व्यक्तियों के द्वारा प्रतिपादित दकियानूसी विचारधारा को अनुसरण करके पूजा-पाठ, कथा-भागवत, यज्ञ, पदयात्रा इत्यादि में बहुत ज्यादा लिप्त हो रहे हैं। यहाँ तक कि कुछ लोग तो प्रत्येक सप्ताह/माह लम्बी-लम्बी धार्मिक यात्राओं पर जाते हैं। सुबह जल्दी उठकर घर का कार्य न करके मन्दिर में जाकर पूजा करते हैं और मन्दिर में बैठे पुजारियों की आर्थिक समृद्धता में सहयोग देते हैं।

यह भी देखा गया है कि इन वर्गो के लोग जो सरकारी सेवा में रहते हुए उनके सेवाकाल में समाज हित के कार्यों में रूचि नहीं लेते हैं वे जब सेवानिवृत्त हो जाते हैं तो समाज हित का कार्य न करके इन अंधविष्वासयुक्त धार्मिक कर्मकाण्ड के जाल में बहुत अधिक लिप्त हो जाते हैं। इससे एक ओर तो इन लोगों के अनुभव व समय का समाज को लाभ नहीं मिल पा रहा है तथा दूसरी ओर ये धर्मांधता को बढ़ावा देने वाली विचारधारा को सूदृढ़ करके शोषक लोगों को आर्थिक रूप से समृद्ध भी बना रहे हैं।

उक्त के मद्देनजर यह विचारणीय बिन्दु है कि एससी, एसटी, ओबीसी तथा सामान्य वर्ग के गरीब लोग क्या अंधविष्वासयुक्त धार्मिक कर्मकाण्ड वाली विचारधारा को आगे बढ़ाकर क्या वे दिग्भ्रमित नहीं हो रहे हैं ?

यह भी नोट किया गया है कि राजनीतिज्ञ व्यक्ति वोट कटने के डर से इन बातों का खुलकर विरोध नहीं करते हैं एवं जनता को सही दिषा नहीं दिखाते हैं। अतः हम सभी की इस विषय में जागृति लाने की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।

सभी को खासकर सेवारत व सेवानिवृत्त कर्मचारियों व अधिकारियों को चाहिए कि वे इन अंधविष्वासयुक्त धार्मिक कर्मकाण्ड जैसे पूजा-पाठ, कथा, भागवत, यज्ञ व पदयात्रा इत्यादि में अनावष्यक लिप्त नहीं हो। उन्हें उनके समय व अनुभव का सदुपयोग करके सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में मदद करके, सामाजिक गतिविधियों में भाग लेकर तथा नए बच्चों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने हेतु प्रेरित करके समाज व गरीब के उत्थान हेतु कार्य करना चाहिए।

रघुवीर प्रसान मीना