Tuesday 18 April 2017

समाज के पढेलिखे लोग खरे नहीं उतर रहे है भारत रत्न बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की अपेक्षाओं पर....

rpmwu112
17.04.2017

भारत रत्न बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की अपेक्षाओं पर समाज के लोग खरे नहीं उतर रहे है, इस बात को व्यंगात्मक रुप में समझाने के लिए कल्पित कहानी है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जब लंदन में गोलमेज सम्मेलन में गए तो वहाँ उन्हें बडा सम्मान मिला, बराबर बिठाया व उनकी बातों को तबज्जो मिली। प्रसन्नता के माहोल में बाबा साहेब सम्मेलन के पश्चात्  एक बगीचे में गए और वहां पर देखा कि बगीचे में विभिन्न प्रकार के फलदार वृक्ष है, बाबा साहेब को लगा कि इन फलदार वृक्षों के बीज अगर मैं भारत में लेकर जाऊं और वहां पर भी ऐसा ही बगीचा विकसित कर दूँ तो भारत के लोगों को बहुत लाभ मिलेगा और आने वाली पीढ़ियों को भी इसका फायदा होता रहेगा। इसी अवधारणा के साथ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर उन फलदार वृक्षों के बीजों को भारत में लेकर आए और जो भी अच्छी जगह संभव हो सकती थी वहां पर उन्होंने उन बीजों का वृक्षारोपण किया, रात दिन मेहनत करके, पानी से सींचकर व खाद तथा उर्वरक डालकर परवरिस की।
जब वृक्ष बडे़ हो गये थे तो बाबा साहेब ने देखा कि उनमें से अधिकांश वृक्षों में फल ही नहीं आ रहे है, वे केवल ढूँढ ही रह गये है, कई में हम दौ हमारे दौ की सोच की तरह बहुत ही कम फल अाये, केवल खुद के लायक और बहुत ही कम संख्या में ऐसे वृक्ष थे जिनमें उनकी सोच के अनुरूप अच्छे फल आये और वे समाज के काम आ सके। अच्छे फलदार वृक्षों की भारी कमी को देखकर बाबा साहेब को बडा दुख हुआ कि मैंने जिस अवधारणा व अपेक्षा से इन वृक्षों को लगाया था उनमें से अधिकतर वृक्ष तो ढूँढ ही रह गये है और कई हम दो हमारे दो से अधिक नहीं सोचते है।
यह कहानी हमारे समाज के लोगों पर भी खरी उतरती है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर द्वारा संविधान में किए गए प्रावधानों के तहत सरकारी सेवा का लाभ लेने के पश्चात अधिकतर लोग या तो दुसरों के कोई काम नहीं आते है या केवल स्वयं के परिवार तक सीमित रहते है। समाज के सामान्य अनजान व्यक्ति की मदद करने वाले लोगों की संख्या बहुत ही कम है।
बाबा साहब को अगर सच्ची श्रद्धांजलि देनी है तो इस बारे में हमें सोचना ही होगा और सोच को कर्म में परिवर्तित करना होगा ताकि समाज के अधिक से अधिक लोगों को हमारी अच्छी पाॅजिशन पर होने का न्योचित लाभ मिल सके।
रघुवीर प्रसाद मीना

Saturday 8 April 2017

धार्मिक क्रियाकलापों से एक जाति विशेष के लोगो को ही लाभ होता है। हमें कम से कम लिप्त होने या बिल्कुल दूर रहने की है जरूरत।

rpmwu111
09.04.2017
आज संयोगवश मैं श्रीधाम स्थित शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के निवास स्थान पर गया एवं देखा कि वहाँ छोटे छोटे बच्चे गैरूएँ वस्त्र धारण किये हुए धूम रहे थे। मैने उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि वे वहाँ संस्कृत अध्यन करते है। मैने पुछा कि क्या यहाँ कोई भी पढ़ सकता है तो उन्होंने तुरंत उत्तर दिया कि केवल ब्राह्मण ही पढ सकते है, अन्य लोग नहीं। वे वहाँ कर्म काण्ड व पूजा पाठ से सम्बन्धित विभिन्न विधायें सीखते है। बडे़ होकर शास्त्री या आचार्य बनेंगे।
तभी मेरे मन मे विचार आये कि विभिन्न प्रकार के धार्मिक क्रियाकलापों से क्या लाभ है? क्या धर्म से गरीब की गरीबी कम हो सकती है? या उसके जीवन स्तर में कोई सुधार हो सकता है? क्या सामाजिक असमानता कम हो सकती है? क्या आज तक धर्म की मान्यता से कोई वैज्ञानिक खोज सम्भव हो पाई है?
मुझे तो लगता है अंधविश्वास, धर्म में आस्था के कारण ही है। धर्म सामाजिक भेदभाव को बढाता आया है और बढाता रहेगा।
अतः आवश्यकता है कि धार्मिक अंधविश्वास के प्रदुषण से अपने आप व जानकारों को बचाया जाये।
रघुवीर प्रसाद मीना

वजन की तरह ईगो व दुर्गणों को भी कम करे।

rpmwu 109
09.04.2017

हम देखते है कि सामान्यतः लोग उनके वजन को तो नियंत्रित रखते है, यदि ज्यादा है तो पूर्ण लगन व मेहनत से कम करने की भरपूर कोशिश करते है परन्तु वे उनकी ईगो व दुर्गुणों के बारे में कोई विचार नहीं करते है। पतले दुबले लोगो की ईगो भी बहुत भयंकर हो सकती है एवं हर तरह के लोगों में दुर्गण हो सकते है।

व्यक्ति को वजन की अपेक्षा ज्यादा ईगो व दुर्गुणों से भारी नुकसान हो सकता है। अतः अच्छे जीवन यापन हेतु वजन के साथ साथ ईगो व दुर्गुणों को कम करने की महति जरूरत है।

रघुवीर प्रसाद मीना