rpmwu456 dt.17.09.2022
विचारणीय सामाजिक समरसता व सौहार्दपूर्ण जीवनशैली अपनायें।
आजकल देखा जा रहा है कि व्यक्ति तार्किक तौर पर व्यक्त किये गये विचारों को जाति, धर्म, समुदाय विशेष के विरूद्ध मानकर बहुत जल्दी नाराज हो जा रहे है और प्रतिक्रिया में सामूहिक विरोध करना प्रारंभ कर देते है। ऐसा होने से सामाजिक समरसता व सौहार्द बिगड़ने लगा है।
कृपया निम्नलिखित पर विचार करें -
1. किसी भी व्यक्ति का जन्म उसके स्वयं के वश में नहीं है। उसका जन्म किसी भी जाति, धर्म या समुदाय में हो सकता है।
2. यदि दो बच्चों की जन्म के समय दूसरे धर्म, जाति या समुदाय में अदला-बदली हो जाये तो जब वे बड़े होंगे तो उनकी विचारधारा परवरिश के माहौल व रीति रिवाजों पर निर्भर करेगी ना कि उनके बायोलॉजिकल माँ बाप के जाति, धर्म या समुदाय के अनुरूप होगी। फिर विचारधारा में कट्टरता का मायना क्या है?
3. हम सभी अपने-अपने व्यक्तिगत जीवन में सभी जाति, धर्म व समुदाय के लोगों की मदद लेते है और करते भी है। शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने दूसरे धर्म, जाति व समुदाय के व्यक्तियों से कभी भी मदद नहीं ली हो, तो इनके आधार पर भेदभाव व दुर्भावना का कितना औचित्य है?
4. विचार करें कि हमारे जीवन के उपयोग या उपभोग में आने वाली अधिकांश चीजें आखिरकार वैज्ञानिक अनुसंधान की ही देन है। जो भी देश आज अग्रणी श्रेणी में है वे विज्ञान के कारण ही है।
5. सरसरी नज़र से लगता तो ऐसा है कि धर्म मानवता के हित में है। धार्मिक व्यक्ति शिष्टाचारयुक्त व मानवीय गुणों से ओतप्रोत होगा। परन्तु धर्म के आधार पर एक दूसरे के साथ जो दरिंदगी व भेदभाव किये गये है या किये जाते है, वे बहुत ही अमानवीय है। यूरोप व अमेरिका में रंगभेद व भारत में छूआछूत के आधार पर एक ही धर्म के लोगों ने उनके ही धर्म के लोगों के साथ शारीरिक और मानसिक अत्याचार किये। यहां तक कि लोगों को पढ़ने तक नहीं दिया गया। कुछ लोग आज भी छुपे रूप से भेदभाव व अत्याचार करते है।
6. जिन लोगों के साथ रंगभेद व छूआछूत के कारण पहले बहुत अधिक भेदभाव व अत्याचार हुआ, अब कालांतर में सामाजिक सोच, जागरूकता, रहन-सहन व तौर तरीके बदलने के कारण वे पढ़ने लिखने लगे गये और तार्किक बाते करने लगे है। ईमानदार सोच वाले समझदार लोग उनका पक्ष लेते है, तत्थात्मक विचार प्रकट करते है और शोषितों का मनोबल बढ़ाते है। परन्तु दकियानूसी सोच वाले एवं जिन लोगों के स्वार्थ पर चोट पडती है वे लोग उनकी बातों का बुरा मानते है और होहल्ला करने लग जाते है। हालांकि जागृति की ज्योति बुझ नहीं पायेगी। उनका विरोध आग में घी का काम करेगा।
अत: लोगों के साथ लम्बे समय तक हुए अत्याचार की पीड़ा को समझते हुए बेवजह धर्म, जाति और समुदाय के आधार पर सामाजिक समरसता व सौहार्द को खराब नहीं करे।
सादर
रघुवीर प्रसाद मीना
मुद्दा धार्मिक विचारधारा का नही, मुद्दा स्वार्थ का है। जहाँ स्वार्थ/लालच बीच मे आजायेगा वहां प्रभावितों का सामूहिक विरोध शुरू हो जाएगा, चाहे वह विरोध तार्किक हो या अतार्किक। गायों की सुरक्षा के लिए इंसानों की जान लेने वाले तथाकथित लंपि बीमारी से मर रही गायों के इलाज /सुरक्षा के लिए कुछ करते हुए नही दिख रहे। बस यही सिस्टम में चल रहा है
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