Wednesday 20 April 2022

स्वतंत्रता सेनानी श्री भैरवलाल 'काला बादल'

 

(4 सितम्बर1918  से 20 अप्रैल 1997)
rpmwu 450 dt. 20.04.2022

श्री कालूलाल मीणा जी के पुत्र स्वतंत्रता सेनानी श्री भैरवलाल 'काला बादल' खानपुर शहर में छठी कक्षा में पढ़ते हुए और श्री तनसुखलाल मित्तल के संपर्क में आने के दौरान 1937 में प्रजा मंडल के सदस्य बने। उन्होंने देशभक्ति गीतों के माध्यम से स्वतंत्रता की भावना को जगाने का एक अनूठा प्रयास किया। 'काला बादल' नामक क्रांतिकारी गीत की रचना के कारण, वह पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिए गए विशेषण 'काला बादल' से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने प्रजामंडल के तत्वावधान में नरसिंह गश्ती पुस्तकालय की स्थापना कर तथा विभिन्न स्थानों पर ऐतिहासिक महत्व के सम्मेलनों का आयोजन कर लोगों को संगठित किया। भारत छोड़ो आंदोलन, 1942 और कोटा की क्रांति में उनकी प्रमुख भागीदारी के कारण वे पुलिस अत्याचारों का शिकार हुए। उन्होंने मीना जाति के लोगों के उत्थान और शिक्षा में विशेष योगदान दिया। उन्होंने वनस्थली से प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।

भैरवलाल 'काला बादल' हाड़ौती के स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी रहे है। राजस्थान राज्य अभिलेखागार (2011) द्वारा हाड़ौती के स्वतंत्रता सेनानियों पर प्रकाशन पाकर वे भावुक हो गए। उन्होंने पूछा, क्या लोग अब भी उनके योगदान को याद करते है? उन्होंने आगे कहा, ''देश को आजाद कराने वालों का और कोई मकसद नहीं था, उनके निस्वार्थ बलिदान से हम आजाद है, देश आजाद है और हम खुली हवा में सांस ले पाते है'


स्रोत: राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर


सादर 
रघुवीर प्रसाद मीना 


श्री राम नारायण मीणा हलधर और डा. ओम नागर द्वारा संपादित लेख - 

स्व.श्री भैरवलाल मीणा "कालाबादल" जी की पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन।

हिंदी के महान क्रांतिकारी कवि काला बादल, जिनके नाम से कांप जाते थे अंग्रेज आजादी के गीतों की लोकप्रियता के कारण कालाबादल पूरे राजस्थान में आजादी के आंदोलन के दौरान उपस्थित रहते थे। माना जाता है कि हड़ौती क्षेत्र में कोई ऐसा थाना नहीं था जिसमें अंग्रेज सरकार के खिलाफ राजद्रोह में उनपर मुकदमा दायर न किया गया हो...

 हमारे देश के स्वतंत्रता सेनानियों में अधिकतर अपने शुरुआती दिनों में कविता प्रेमी या मौलिक कवि थे। देशप्रेम का यह भाव हिंदी, उर्दू से लेकर क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों में भी देखा जा सकता है। राजस्थान में विजय सिंह पथिक, नानक भील, पंडित नयनू राम शर्मा, प्रेम चंद भील, भैरव लाल कालाबादल, गणेशी लाल व्यास, मोतीलाल घड़ीसाज, वीरदास स्वर्णकार सहित अनेकानेक रचनाकारों ने हिंदी और राजस्थानी भाषा में देश प्रेम काव्य के माध्यम से आजादी का बिगुल बजाया।

भैरवलाल कालाबादल ने राजस्थानी भाषा की हाड़ौती बोली में जनजागरण और समाज सुधार के प्रभावशाली गीतों की रचना की। कालाबादल का जन्म 4 सितंबर 1918 में राजस्थान के बारां जिले की छीपाबड़ौद तहसील के तूमड़ा गांव में #मीणा_परिवार में हुआ था। उनके पिता कालूराम मीणा एक गरीब कृषक थे। कालाबादल का बचपन अत्यंत गरीबी और कष्टों में बीता। बचपन में दो भाई-बहन और मां-बाप की मृत्यु हो गई। उन्होंने ग्रामीणों और शिक्षकों की सहानुभूति और सहयोग से मिडिल तक पढ़ाई की और किशोरावस्था से ही क्षेत्र में आजादी के आंदोलनों में भाग लेने लगे।

आजादी के आंदोलन को जन आंदोलन बनाने में लोक भाषा में रचे गए साहित्य का बड़ा योगदान है। भैरवलाल कालाबादल ने हाड़ौती क्षेत्र की स्थानीय बोली 'हाड़ौती' में अपने गीतों की रचना की। पारंपरिक लोकगीतों की तर्ज और गेयता उनकी रचनाओं सबसे बड़ी ताकत थी। अपने गीतों के माध्यम से वे क्रांतिकारियों की सभाओं में भीड़ इकट्ठी करने का महत्वपूर्ण काम करते थे। कालाबादल प्रखर गांधीवादी थे। वह हाड़ौती के प्रमुख क्रांतिकारी पंडित नयनूराम शर्मा के शिष्य और सहायक थे।

आजादी की लड़ाई को गांव कस्बों तक ले जाने में उस समय सक्रिय संगठन प्रजा मंडल की महत्वपूर्ण भूमिका थी। हाड़ौती में प्रजा मंडल का प्रथम सम्मेलन सन् 1939 में बारां जिले के मांगरोल कस्बे में आयोजित करने का निर्णय लिया गया था। अंग्रेज सरकार किसी भी कीमत पर इस सम्मेलन को सफल नहीं होने चाहती थी। पंडित नयनूराम शर्मा ने कालाबादल को सम्मेलन में अपने गीतों से जनसमुदाय को एकत्रित करने का जिम्मा सौंपा। सरकारी अधिकारियों को इस बात को अंदेशा था कि यदि भैरवलाल कालाबादल इस सम्मेलन में पहुंच जाएंगे तो वहां उन्हें सुनने के लिए असंख्य लोग इकट्ठे हो जाएंगे और वे कानून व्यवस्था को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इस सम्मेलन से ठीक एक दिन पहले कालाबादल को खानपुर पुलिस ने पकड़कर थाने में बंद कर दिया। ऐसा माना जाता है कि हाड़ौती क्षेत्र में उस समय ऐसा कोई थाना नहीं था जिसमें अंग्रेज सरकार के खिलाफ साजिश रचने और राजद्रोह के केस में कालाबादल पर मुकदमा दायर न किया गया हो।

कालाबादल के गीतों में ठेठ बोल-चाल की भाषा के सरल शब्द, लयात्मकता और सुरीलापन सुनने वालों पर अभूतपूर्व प्रभाव छोड़ते थे, एक गीत की कुछ पंक्तियां देखिए जिसमें वह जनता को अत्याचारियों का विरोध करने और इसके परिणाम भुगतने के लिए मज़बूत बनने की बात कहते हैं -

आई आजादी आंख्यां खोल दो।

गांवड़ा का खून सूं रे, शहर रंग्या भरपूर,

गढ़ हवेल्यां की नींव तले, सिर फोड़े मजदूर।

अर्थात-हे देश वीरों अब तो नींद से जागो और आंखें खोलकर देखो देश आजाद हो गया है, ये शहर-गांवों के खून से रंगे हुए हैं, इन हवेलियों और अट्टालिकाओं की नीवों में सिर फोड़ रहे हैं।
कालाबादल की यह कविता का एक-एक शब्द किसान, मजदूर और कमजोर वर्ग के अभावों और यातनाओं का प्रामाणिक दस्तावेज है। वे देश की आजादी के पूर्व और आजादी के बाद भी अपने काव्य की मशाल से सदियों के गहन अंधकार में उम्मीद की मशाल जलाते रहे-

अब तो चेतो रे मरदाओं!

काला बादल रे, अब तो बरसा से बलती आग

बादल! राजा कान बिना रे सुणे न्ह म्हाकी बात,

थारा मन तू कर, जद चाले वांका हाथ।

कसाई लोग खींचता रे मरया ढोर की खाल,

खींचे हाकम हत्यारा ये करसाणा की खाल।

छोरा छोरी दूध बिना रे, चूड़ा बिन घर-नार,

नाज नहीं अर तेल नहीं रे, नहीं तेल की धार ।

अर्थात-कवि कालाबादल ने इस गीत के माध्यम से अंग्रेजी शासन में किसान-मजदूर वर्ग का बेहद दयनीय, लेकिन वास्तविक स्वरूप दुनिया के सामने रख दिया था। इस गीत में कवि ने काले बादलों से आग बरसाने का आह्वान किया ताकि फिरंगियों का सम्राज्य जलकर पूरी तरह भस्म हो जाए। वे कहते हैं कि हे काले बादलों राजा तो बहरा है जो हमारी बात बिलकुल नहीं सुनता, कसाई तो मरे हुए जानवरों की खाल खींचते हैं, जबकि ये राजा और हाकिम जीवित लोगों की खाल खींच रहे हैं, घर में न तो बच्चों के लिए दूध है, न अनाज है और न ही घरवाली के हाथों चूड़ा है। कवि का यह अप्रतिम आक्रोश था जो खास तौर से ग्रामीण जनता में अपूर्व साहस और देश पर मर मिटने का भाव जगाता था।

गाढ़ा रीज्यो रे मर्दाओं, थांको सारो दुख मिट जावे

अन्यायी एको कर करसी, थांके ऊपर वार

तोड़ां बेड़ी, गाल्यां घमकी वार

एको कर मल जाज्यो रे मारत मां का पूत

ईश्वर थांकी जीत करेगा रीज्यो थां मजबूत

अर्थात-हे देश के वीरों! यदि तुम मजबूत बनकर अत्याचारियों के विरोध हेतु खड़े हो जाओ तो तुम्हारे सब दुखों का अंत हो जाएगा, इन सभी अन्याय करने वालों ने आपस में एकता करली है, वे अपशब्द कहते हैं, धमकियां देते हुए तुम्हारे ऊपर वार कर रहे हैं, आओ हम सब भी एक हो जाएं और इन परतंत्रता की बेडिय़ों को तोड़ डालें, इसमें ईश्वर भी हमारे साथ है।

अपने लोकभाषा में रचे गए गीतों की लोकप्रियता के कारण कालाबादल पूरे राजस्थान में आजादी के आंदोलन के दौरान होने वाले वाले सभा-सम्मेलनों की अनिवार्यता हो गए थे। सन् 1940 में उन्होंने कोटा जिले के रामगंज मंडी कस्बे में प्रजामंडल का एक विशाल किसान सम्मेलन आयोजित करवाया, इसमें लगभग 10 हजार लोगों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में हजारों नवयुवकों ने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लेने का संकल्प लिया। कालाबादल के हाड़ौती भाषा में रचे गए गीत लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गए थे। अब लोग उनके गीतों की पुस्तक प्रकाशित करने की मांग करने लगे थे। सन् 1940 में कालाबादल उस समय के बेहद चर्चित बिजोलिया किसान आंदोलन के प्रणेता, राजस्थान केसरी क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के घर पुस्तक प्रकाशन के संदर्भ में आगरा गए। उस समय उनके प्रेस पर अंग्रेज सरकार ने पाबंदी लगा रखी थी। पथिक जी ने अत्यंत गोपनीय तरीके से कालाबादल के गीतों की पुस्तक 'आजादी की लहर' प्रकाशित कर आगरा से उन्हें सकुशल रवाना किया। उनकी अन्य पुस्तकें हैं 'गांवों की पुकार' और 'सामाजिक सुधार'।

सन् 1941 के मई महीने में भैरव लाल कालाबादल, प्रभु लाल कल्कि और जीतमल जैन को राजद्रोह के आरोप में 29 दिन की जेल और 200 रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई। जेल अवधि में उन्होंने एक नाटक लिखा जिसका नाम था 'दुखी-दुखिया' जो बाद में काफी लोकप्रिय हुआ।

सन् 1946 तक इस महान क्रांतिकारी और लोकभाषा के कवि का नाम भैरव लाल मीणा था। कालाबादल उपनाम इन्हें हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने दिया था। देश की आजादी से एक वर्ष पूर्व सन् 1946 में उदयपुर राज्य लोक परिषद के सम्मेलन में उन्हें गीत गाने के लिए मंच पर बुलाया, चूंकि नेहरू जी को कवि का नाम याद नहीं था, लेकिन उनके गीत की पंक्तियां-कालाबादल... कालाबादल याद रहीं, उन्हें इन्हीं पंक्तियों के साथ मंच पर आमंत्रित किया गया, इसके बाद से उन्हे कालाबादल के नाम से ही जाना जाने लगा।

तत्कालीन देसी राजाओं और जागीरदारों द्वारा किसानों और मेहनतकश जनता पर बड़े ज़ुल्म किए जा रहे थे। कवि कालाबादल ने अपने अधिकांश गीतों में निडरतापूर्वक उनका पर्दाफाश किया, यह उस जमाने में एक युवा और गरीबी से संघर्ष कर रहे कवि के लिए आसान बात नहीं थी-एक गीत का अंश देखें -

धरम, धन, धरती लूटे रे, जागीरदार,

जागीरी म्ह जीबा सूं तो भलो कुआं म्ह पड़बो

जागीरी का गांव सूं तो भलो नरक म्ह सड़बो

मां-बहण्यां के सामे आवे, दे मूछ्यां के ताव

घर लेले बेदखल करादे, और छुड़ा दे गांव

अर्थात-ये जागीरदार धर्म, धरती और धन सब लूट रहे हैं, जागीरी में जीने से तो कुएं मे डूबकर मर जाना और नरक में सडऩा बेहतर है। ये इतने निरंकुश हैं मां कि बहनों की इज्जत भी सुरक्षित नहीं है ये जब चाहें किसी को भी बेदखल करदें और गांव छोडऩे पर मजबूर कर सकते हैं।

आजादी के बाद वह सक्रिय राजनीति में आ गए। वह प्रथम राजस्थान विधान सभा में (1952), 1957, 1967 और 1977 विधायक रहे। 1978 -80 में उन्हे आयुर्वेद राज्य मंत्री बनाया गया। इतना यश और पद पाने के बावजूद वह सदैव विनम्र, सहृदय और सादगीपूर्ण जीवन जीवन जीते थे। उनका पूरा जीवन गांधी जी के सिद्धांतो पर आधारित था। 20 अप्रैल 1997 को 79 वर्ष की आयु में हृदय गति रुक जाने के कारण आजादी के गीतों का यह युग चारण सदैव के लिए मौन हो गया। उनकी मृत्यु के 20 साल बाद 2017 में बोधि प्रकाशन से कोटा के मीणा समाज ने उनकी आत्मकथा- 'कालाबादल रे! अब तो बरसादे बळती आग का प्रकाशन करवाया।


श्री बी एल मीना , राष्ट्रीय अध्यक्ष , राष्ट्रीय मीणा महासभा द्वारा लिखा गया लेख - 

काला बादल जी को उनकी पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन और भावभीनी श्रद्धांजलि। मैं हाई स्कूल पास कर सन् 1957 की जुलाई में कालेज शिक्षा के लिए जयपुर आकर महाराजा कालेज में प्रवेश लिया।  विधानसभा के लिए चुनाव ताजा ही हुए थे और काला बादल जी भी चुन कर आये थे। मैं केवल 19 वर्ष का था। मुझे राजस्थान सरकार द्वारा चलाये जा रहे छात्रावास में भी प्रवेश मिल गया था जो उस वक्त त्रिपोलिया गेट के पास स्थित नवाब हाऊस में था। आज का पुलिस कमिश्नर आफिस उस वक्त विधायक निवास था। मुझे जननेताओं से मिलना अच्छा लगता था अतः मैं छात्रावास से पैदल चलकर हर रविवार को इस विधायक निवास पहुंच जाता था और और नेताओं से मिलता रहता था। उस वक्त काला बादल जी से भी मिलता रहता था। उनका नाम मैंने अपने पिताजी से सुन रखा था। वे भी आजादी की लड़ाई में भाग ले रहे थे और सभी नेताओं को जानते थे। काला बादल जी और अन्य विधायक भी मुझे प्यार देते थे। एक लच्छू राम नाम के विधायक जो पता नहीं कहां से विधायक थे ने मुझसे मेरा परिचय पूछ लिया और यह जानने पर की मैं इतनी दूर से हर रविवार पैदल चलकर आता हूं तो कहा " बेटे  रिक्षै से आजाया करो मैं पैसे दे दिया करुंगा।"  मैंने कहा मुझे कोई दूरी अखरती नहीं है, गांव का हूं, बहुत चला हूं।
 एक बात मैं यहां कहना चाहूंगा काला बादल जी का जन्म भले ही हाड़ोती क्षेत्र के बारां जिले में हुआ हो, लेकिन उनकी कर्मस्थली मेरे सीकर जिले का  प्रसिद्ध गांव नयाबास ही रहा है। पुलिस की परेशानी से बचने के लिए  उनको अपना गांव छोड़ना पड़ा था। वहीं नयाबास के अग्रणी नेता हर सहाय जी ने उनकी शादी भी करवा दी थी। बाद में जनता पार्टी के राज में जब वे मंत्री बने तब भी मैं उनसे मिलता रहता था। उस वक्त तो नौकरी में आगया था। बड़े सरल स्वभाव के व्यक्ति थे और अपनी मातृभाषा में ही बात करते थे। उस महान व्यक्तित्व को एक बार फिर नमन।

5 comments:

  1. सत् सत् नमन्।

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  2. काला बादल जी को आपके शब्दो के प्रकाश ने उजास में लाने का बहरीन प्रयास किया है।
    बहुत बहुत मुबरको

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Thank you for reading and commenting.