rpmwu442 dt 18.12.2021
आज ट्रेन में यात्रा के दौरान मेरे कूपे में 2 यात्री अलग-अलग समय पर आये, जिनके साथ छोटे बच्चे थे। एक महत्वपूर्ण बात देखी कि बच्चों के मन में जो भी आ रहा था वे बेझिझक बोल रहे थे। तभी मेरे मन में विचार आया कि देखो जब व्यक्ति बच्चा होता है तो वह बिना कुछ सोचे समझे जो मन में आ रहा है उसे आसानी से बोलता है अपनी बात या विचारों को व्यक्त करते समय किसी प्रकार का फिल्टर नहीं लगाता। उसे जैसी भी भाषा में बात करना आता है धड़ल्ले से करता है और प्रसन्न रहता है। परंतु व्यक्ति जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है वह विचार व्यक्त करते समय अनेक प्रकार के फिल्टर लगाने के कारण बातों को बहुत ही नपे तुले तरीके से बोलता है और फिर भी उसे डर लगता है कि दूसरों को खराब तो नहीं लग जाएगा।
जब भी हम किसी भी फिल्टर का उपयोग करते हैं एक वह कुछ अवयवों को रोक लेता है और कुछ पास होने देता है। यही बात हमारे विचारों की सॉफ्टवेयर पर भी लागू होती है। जब हम विचार करके बातों को कहने से रोक लेते है तो उनके कई सारे पहलू हमारे मस्तिष्क के फिल्टर में जमा हो जाते है। कई बार व्यक्ति कुंठा से ग्रसित हो जाता है। दूसरों को खुश करने की मंशा में वह खुद दुखी हो जाता है। आवश्यकता से अधिक फिल्टर करने से हमारी खुद की सॉफ्टवेयर के फिल्टर में अवांछनीय अवयवों की मात्रा ज्यादा हो जाने से मानसिक तनाव व अशांति हो सकती है। अतः आवश्यकता है कि हमको चीजें कितनी फिल्टर करनी चाहिए उसका बैलेंस करें।
सादर
रघुवीर प्रसाद मीना
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